Shloka - 17

नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति
नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा-प्रभाव:
सूर्यातिशायि महिमाऽसि मुनीन्द्र ! लोके   ॥१७॥

Nāstam Kadāchidupayāsi Na Rāhugamyah
Spashtīkaroshi Sahasā Yugapajjaganti
Nāmbhodharodara Niruddha Mahāprabhavah
Sūryātishāyimahimāsi Munīndra! Loké    ||17||

O Monk among monks ! Your unabounding glory is greater than that of the sun. The sun rises every day but sets as well,but the orb of your omniscience is ever shining,it never sets. The sun is eclipsed but you are passionless and infinitely virtuous;as such,no mundane passion or desire eclipses the glory of your virtues. The sun slowly rises over parts of the world,but the glow of your omniscience reaches every part of the world at once. The sunrays are obstructed by insignificant clouds, but there is nothing that can obstruct the radiance of your knowledge.

हे मुनीन्द्र! आप सूर्य से भी विलक्षण महिमाशाली हैं। सूर्य प्रतिदिन उदय होता है, अस्त होता है, किन्तु आपका ज्ञानसूर्य तो सदा ही आलोकित रहता है। कभी अस्त नहीं होता।

सूर्य को राहु ग्रस लेता है, किन्तु आप निर्विकार व अनन्तऋद्धि सम्पन्न हैं, अतः संसार की कोई भी वासना या इच्छा आपको ग्रस्त नहीं कर सकती।

सूर्य धीरे-धीरे कुछ सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है किन्तु आपका केवलज्ञान-प्रकाश संपूर्ण जगत को एक ही साथ प्रकाशित करता है।

सूर्य को सामान्य बादल भी ढँक देते हैं, किन्तु आपके महाप्रभाव को कोई भी शक्ति अवरुद्ध नहीं कर सकती।

stotra 2

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The sun rises and sets,it is eclipsed and is covered by clouds,but the orb of the Jina is not dimmed by anything.

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